सिरमौर न्यूज। राजगढ़
जैसा नाम से ही जाहिर है कि जीते जी समाधि ले लेना। इस प्रक्रिया में समाधि लेने वाला व्यक्ति स्वयं समाधि की चिणाई करता है जिसे उसके समाधि में बैठने के बाद दूसरे लोग उसकी सिर के उपर तक पूरी तरह से गोल चिणाई करके उपर बड़ा सा कटवां पत्थर लगा कर बंद कर देते हैं। जानकारी के अनुसार लगभग 150 वर्ष पहले आखिरी समाधि बराईला गांव के ‘‘साधुनाथ’’ नाम के एक ‘‘नाथ समुदाय’’ के व्यक्ति ने ली थी। उसके बाद राजगढ़ क्षेत्र में कोई जिंदा समाधि नहीं ली गई है। इससे पहले राजगढ़ क्षेत्र में लगभग आधा दर्जन समाधियां ली गई थी जिनमें सभी, महात्माओं की समाधियां ही सुनने को मिली है। प्रचलित जिंदा समाधियों में ठौड़ निवाड़ में गुरू इतवारनाथ, भूईरा में बाबा कांशीरामदास स्वामी, लाना चेता में मुकुंदनाथ एवं जोगीनाथ तथा बराईला में साधुनाथ नामक संत शामिल हैं। इनमें गुरू इतवारनाथ एवं बाबा कांशीरामदास स्वामी के कोई वंशज नहीं और उनकी गुरू गद्दी पर कोई संत ही बैठता है मगर बाकी जिंदा समाधिस्तों के वंशज हैं और अब सामान्य रूप से बिना गुरू गद्दी के परिवारों सहित रह रहे हैं। सुना जाता है कि ठौड़-निवाड़ और भूईरा में समाधि लेने वाले दोनों साधु हरिद्वार से कुछ दिनों के लिए पहाड़ों पर आए थे जो यहीं के बन कर रह गए और यहीं तप करके ग्रामीणों के दुख दूर करते रहे।
गुरू इतवार नाथ: यह लगभग आठ सौ वषर््ा पहले की बात है, एक संत सरसू-महालाणा की ओर से ठौड़ निवाड़ में आया। उसने किसी महिला से पानी मांगा जो काफी दूर से ला रही थी और थकी हुई थी। उसने गुस्से में कहा, ‘तेरा साध ओसे तो एथया न पवानदा चीश’ यानि यदि ऐसा ही महात्मा है तो यहीं निकाल पानी। उसने भी अपनी शक्ति दिखाई, अपना चिमटा पहाड़ में दे मारा और वहां से पानी का चश्मा फूट पड़ा जो आज भी बरकरार है। उस महात्मा ने कई चमत्कार दिखाए और वहीं रह कर ग्रामीणों के दुख दूर करने लगा। अंत में उसने अपने शिष्यों से जिंदा समाधि लेने की बात कही और नदी के किनारे समाधि चिनवा दी। भईया दूज का समय निर्धारित किया तथा गुरू इतवारनाथ जी उसमें बैठ गए और शिष्यों ने उसे पूरी तरह से बंद कर दिया। आज भी उनके नाम से मठ बना है तथा भईया दूज को वहां विशाल मेला लगता है।
बाबा कांशीराम दास स्वामी: भूईरा नामक गांव के निकट एक टीले पर इनकी जिंदा समाधि आज भी विद्यमान है। इन्होंने कई स्थानों पर जिंदा समाधि लेने की बात कही परन्तु हर जगह इन्हें ऐसा करने से रोका गया। आखिर में भूईरा के एक टीले पर समाधि लेने की बात कही तो गांव वालों ने पाप लगने के डर से उन्हें रोक दिया। इस पर बाबा ने आश्वासन दिलाया कि मैं आप लोगों पर कोई दोष नहीं लगने दूंगा और अपनी समाधि की स्वयं रक्षा करूंगा। स्वामी ने अभिमंत्रित चावल उस टीले के चारों ओर बिखेरे जिससे वहां पर बान का घना जंगल उग आया जो आज भी उस संत के होने की पुष्टि कर रहा है। वह स्थान अब बिल्कुल अलगथलग मगर पूरी तरह से सुरक्षित है।
मुकुंद नाथ एवं जोगी नाथ: गांव लाणा चेता के कोट नामक स्थान पर इन बाप-बेटा की जिंदा समाधियां बनी हुई हैं। हालांकि इनके साथ दीनेनाथ, कांशीनाथ तथा हठीनाथ इत्यदि की भी समाधियां बनी हुई हैं परन्तु वे सामान्य समाधियां हैं। इनका अलग ही एक समुदाय है जो किसी ऋषि से जुड़ा हुआ है। ये संभवतया ब्राईला नामक स्थान से यहां आये थे क्योंकि इस समुदाय के लोग वहां पर ही हैं और उनके पूर्वज ने भी जिंदा समाधि ली थी। इनका पहरावा भी अलग होता था जिसके तहत ये पीली पगड़ी धारण किए रहते थे। कान में कुंडल पहनते थे जिससे नाथ समुदाय की छाप बनी रहती थी।
साधु नाथ: ये भी नाथ समुदाय से संबंधित थे। इनकी समाधि बथाउधार (बरायला) में बनी हुई है। जिंदा समाधि लेने वाले ये सबसे अंतिम व्यक्ति हैं। ये लगभग 150 वर्ष पहले की बात है। साधुनाथ के पुत्र मीना नाथ और मीना नाथ के पुत्र जीतानाथ (86 वर्ष) के अनुसार जब साधुनाथ जिंदा समाधि में बैठे तो ग्रामीणों ने अंदर जाने वाली जगह भी पत्थरों से बंद कर दी। उससे पहले साधुनाथ ने बता दिया था कि वो अपने साथ शंख ले जा रहे हैं जो हर दिन बजाया करूंगा। जिस दिन शंख की आवाज नहीं सुनाई देगी तो समझ लेना अब मैं प्राण छोड़ चुका हूं। कहते हैं कि 27 दिनों तक शंखघ्वनि सुनाई देती रही थी।
